Join WhatsApp
Join NowCloud seeding : कल्पना कीजिए कि जिस शहर की हवा में आप सांस लेने से भी डरते हैं, वहाँ अचानक आसमान से राहत की बारिश होने लगे। यह कोई चमत्कार नहीं, बल्कि विज्ञान की एक अद्भुत देन है, जिसे क्लाउड सीडिंग (Cloud Seeding) कहते हैं। भारत के दिल दिल्ली में सर्दियों का मतलब सिर्फ ठिठुरन नहीं, बल्कि ज़हरीला स्मॉग और प्रदूषण का वो कहर है जो सांस लेना भी मुश्किल कर देता है। लेकिन अब, 2025 में, इस समस्या से लड़ने के लिए सरकार एक ऐसा ब्रह्मास्त्र इस्तेमाल करने जा रही है, जो आसमान से कृत्रिम बारिश कराकर हवा को धो डालेगा।
यह तकनीक क्या है, इसमें कितना खर्च आता है, और क्या यह वाकई सुरक्षित है? आइए, हर सवाल का जवाब 10 सरल बिंदुओं में समझते हैं।
1. क्लाउड सीडिंग क्या है?
यह मौसम को नियंत्रित करने की एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है, जिसमें बादलों को “बीजारोपण” किया जाता है। हवाई जहाजों या ग्राउंड-बेस्ड जनरेटरों का उपयोग करके, बादलों के भीतर सिल्वर आयोडाइड, पोटेशियम आयोडाइड या नमक जैसे छोटे कण छोड़े जाते हैं। ये कण हवा में मौजूद नमी को आकर्षित करके पानी की बूंदों या बर्फ के क्रिस्टल में बदल देते हैं, जिससे बादल भारी हो जाते हैं और बारिश के रूप में बरस पड़ते हैं। यह सूखे, प्रदूषण और पानी की कमी से निपटने का एक कारगर तरीका है।
2. भारत, खासकर दिल्ली, को इसकी ज़रूरत क्यों है?
भारत एक ऐसा देश है जहाँ एक तरफ सूखा किसानों की कमर तोड़ देता है, तो दूसरी तरफ शहरों में प्रदूषण लोगों की जान ले लेता है। दिल्ली में सर्दियों के दौरान, स्मॉग की मोटी परत बन जाती है, जो अस्थमा और दिल की बीमारियों का कारण बनती है। क्लाउड सीडिंग से होने वाली कृत्रिम बारिश हवा में मौजूद धूल और ज़हरीले कणों (PM 2.5) को धोकर जमीन पर ले आती है, जिससे हवा की गुणवत्ता (AQI) में तुरंत सुधार होता है।
3. इस “आसमानी बारिश” का खर्च कितना आता है?
क्लाउड सीडिंग एक महंगी तकनीक है, लेकिन इसके फायदे लागत से कहीं ज़्यादा हैं। एक छोटे प्रोजेक्ट पर लगभग 12.5 लाख से 41 लाख रुपये तक का खर्च आ सकता है। वहीं, एक बड़े क्षेत्र में साल भर इसे करने का खर्च 8 से 12 करोड़ रुपये तक पहुँच सकता है। अमेरिका जैसे देशों में यह तकनीक अरबों डॉलर का आर्थिक लाभ देती है, जैसे फसल बचाना और पर्यटन बढ़ाना।
4. 2025 में दिल्ली सरकार कितना खर्च कर रही है?
दिल्ली में वायु प्रदूषण से लड़ने के लिए, 2025 में क्लाउड सीडिंग के शुरुआती ट्रायल्स के लिए कुल 3.21 करोड़ रुपये मंजूर किए गए हैं। यह राशि 5 अलग-अलग ट्रायल्स के लिए है। हर ट्रायल पर 55 लाख से 1.5 करोड़ रुपये का खर्च आएगा, जिसमें शुरुआती सेटअप पर अतिरिक्त 66 लाख रुपये लगे हैं। अनुमान है कि 100 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में प्रति किलोमीटर केवल 1 लाख रुपये खर्च करके 5-6 दिनों तक प्रदूषण से राहत मिल सकती है।
5. इसकी मुख्य तकनीकें कौन-सी हैं?
क्लाउड सीडिंग मुख्य रूप से दो तरीकों से की जाती है:
-
स्टेटिक सीडिंग (Static Seeding): यह ठंडे बादलों (0 डिग्री से नीचे) में इस्तेमाल होती है। इसमें सिल्वर आयोडाइड का उपयोग करके बर्फ के क्रिस्टल बनाए जाते हैं, जो भारी होकर गिरने लगते हैं और नीचे आकर बारिश की बूंदों में बदल जाते हैं।
-
हाइग्रोस्कोपिक सीडिंग (Hygroscopic Seeding): यह गर्म बादलों (0 डिग्री से ऊपर) में इस्तेमाल होती है। इसमें नमक (सोडियम क्लोराइड) जैसे कणों का छिड़काव किया जाता है, जो हवा से नमी सोखकर पानी की बड़ी-बड़ी बूंदें बनाते हैं और बरस जाते हैं।
6. यह तकनीक असल में काम कैसे करती है?
आसमान में बादल तो होते हैं, लेकिन कई बार उनमें मौजूद नमी की बूंदें इतनी छोटी होती हैं कि वे बारिश बनकर गिर नहीं पातीं। क्लाउड सीडिंग इन्हीं छोटी बूंदों को जोड़ने का काम करती है। छिड़के गए रसायन एक “न्यूक्लियस” की तरह काम करते हैं, जिनके चारों ओर पानी की बूंदें जमा होने लगती हैं। जब ये बूंदें काफी बड़ी और भारी हो जाती हैं, तो गुरुत्वाकर्षण के कारण बारिश के रूप में गिरने लगती हैं। इसकी सफलता दर 10-30% तक हो सकती है।
7. इसमें कौन-से रसायन इस्तेमाल होते हैं?
सबसे ज़्यादा इस्तेमाल होने वाला रसायन सिल्वर आयोडाइड (Silver Iodide) है, जो बर्फ बनाने में माहिर है। इसके अलावा, पोटैशियम आयोडाइड, सूखी बर्फ (ठोस कार्बन डाइऑक्साइड), और नमक का भी इस्तेमाल होता है। वैज्ञानिक तौर पर इन्हें पर्यावरण के लिए सुरक्षित माना जाता है, लेकिन इनका उपयोग नियंत्रित मात्रा में ही किया जाना चाहिए।
8. भारत में कौन-सी तकनीक और रसायन इस्तेमाल हो रहे हैं?
भारत में नमक, सिल्वर आयोडाइड, और कैल्शियम क्लोराइड का उपयोग किया जा रहा है। CAIPEEX जैसे बड़े प्रोजेक्ट्स में हाइग्रोस्कोपिक फ्लेयर्स का इस्तेमाल हुआ है। दिल्ली में, IIT कानपुर की देखरेख में, हवाई जहाज़ों से नमक या सिल्वर आयोडाइड का छिड़काव करके बारिश कराई जाएगी। भविष्य में रॉकेट और ड्रोन के इस्तेमाल पर भी विचार हो रहा है।
9. इस तकनीक के फायदे क्या-क्या हैं?
इसके फायदे अनगिनत हैं:
-
प्रदूषण से राहत: दिल्ली जैसे शहरों में स्मॉग को तुरंत खत्म करती है।
-
सूखे का समाधान: पानी की कमी वाले क्षेत्रों में फसलों को बचाया जा सकता है।
-
बाढ़ नियंत्रण: यह बादलों को समय से पहले बरसाकर अचानक आने वाली बाढ़ को रोक सकती है।
-
लागत प्रभावी: लंबे समय में यह प्रदूषण नियंत्रण के अन्य उपायों से सस्ती पड़ती है।
-
जलवायु परिवर्तन से लड़ाई: वैज्ञानिक इसे जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने के एक शक्तिशाली हथियार के रूप में देखते हैं।
10. क्या इसके कोई जोखिम भी हैं?
हाँ, कुछ सावधानियां ज़रूरी हैं। रसायनों का ज़्यादा इस्तेमाल पर्यावरण को नुकसान पहुंचा सकता है, जैसे पानी में सिल्वर की मात्रा बढ़ना या मिट्टी की गुणवत्ता पर असर। सिल्वर आयोडाइड से कुछ लोगों को एलर्जी भी हो सकती है। इसीलिए भारत में IIT कानपुर जैसे प्रतिष्ठित संस्थान इस प्रक्रिया की निगरानी कर रहे हैं ताकि इसका कोई दुष्प्रभाव न हो। सफलता की 100% गारंटी नहीं है, लेकिन यह एक उम्मीद की किरण ज़रूर है।













