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Join NowUttarakhand disaster: उत्तराखंड, जिसे हम श्रद्धा से ‘देवभूमि‘ कहते हैं। एक ऐसी धरती जहाँ के प्राकृतिक नज़ारे हर किसी का मन मोह लेते हैं। कहीं फूलों की मनमोहक घाटियां हैं, तो कहीं बादलों की सफेद चादर ओढ़े रहस्यमयी पहाड़ लोगों को अपनी ओर खींचते हैं। घने जंगल, हरे-भरे मैदान (बुग्याल) और बर्फ से ढकी चमचमाती चोटियाँ उत्तराखंड को पृथ्वी पर किसी स्वर्ग जैसा बनाती हैं। यहाँ की शांत वादियों में बिताया गया एक-एक पल किसी जन्नत के एहसास से कम नहीं होता।
लेकिन इस खूबसूरत तस्वीर का एक दूसरा, बेहद दर्दनाक पहलू भी है।
आखिर पहाड़ों की गोद में क्यों मच रहा है मौत का तांडव?
देवभूमि में हिमालय की चोटियों से निकलने वाली जीवनदायिनी मानी जाने वाली पवित्र नदियां – गंगा, यमुना, अलकनंदा, और भागीरथी, अब बार-बार तबाही और विनाश का कारण बन रही हैं। पिछले कुछ सालों का रिकॉर्ड देखें तो उत्तराखंड में बाढ़, भयानक भूस्खलन (Landslide), ग्लेशियर का टूटना (Glacier Burst), और जंगलों की आग (Forest Fire) जैसी आपदाएं अब आम होती जा रही हैं। हर साल आने वाली इस प्रलय की वजह से सैकड़ों लोग मौत के मुंह में समा जाते हैं, घर, गांव और जिंदगियां तबाह हो जाती हैं। ऐसा लगता है मानो खूबसूरत उत्तराखंड धीरे-धीरे उजड़ रहा है।
अब सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि आखिर ऐसा हो क्यों रहा है? क्या यह सिर्फ प्रकृति का रौद्र रूप है या इंसानी गलतियों की वजह से पहाड़ अब अपना बदला ले रहे हैं?
जब-जब देवभूमि ने देखा तबाही का खौफनाक मंजर
उत्तराखंड में प्राकृतिक आपदाएं कोई नई बात नहीं हैं, लेकिन पिछले एक दशक में इनकी आवृत्ति और तीव्रता में खतरनाक रूप से वृद्धि हुई है:
- केदारनाथ त्रासदी (2013): भारी बारिश और मंदाकिनी नदी में आई प्रलयकारी बाढ़ ने एक ऐसा जख्म दिया जो आज भी हरा है। इस त्रासदी में 5000 से ज़्यादा लोगों की मौत हुई और सब कुछ तहस-नहस हो गया।
- चमोली आपदा (2021): चमोली जिले में ऋषिगंगा और धौलीगंगा नदियों में ग्लेशियर का एक विशाल टुकड़ा टूटकर गिरा, जिससे अचानक आई बाढ़ ने तपोवन बांध को तोड़ दिया और सैकड़ों मजदूरों और स्थानीय लोगों की जानें चली गईं।
- मानसून का कहर (2023): बरसात के मौसम में हुए अनगिनत भूस्खलन और उफनती नदियों ने घर, सड़कें, और पुल बहा दिए, जिससे जान-माल का भारी नुकसान हुआ।
सिर्फ प्रकृति का प्रकोप या मानवीय हस्तक्षेप का नतीजा?
शोधकर्ता और वैज्ञानिक लगातार चेतावनी दे रहे हैं कि उत्तराखंड में होने वाली तबाही के लिए सिर्फ प्राकृतिक कारण जिम्मेदार नहीं हैं, बल्कि यह मानवीय गतिविधियों और जलवायु परिवर्तन का मिला-जुला घातक परिणाम है।
- हिमालय की नाजुक भौगोलिकी: उत्तराखंड जिस हिमालय की पर्वत श्रृंखला पर बसा है, वह भूगर्भीय रूप से अभी भी बहुत युवा और सक्रिय है। टेक्टोनिक प्लेट्स के टकराव के कारण हिमालय हर साल 4-5 मिलीमीटर बढ़ रहा है। इस निरंतर टकराव से भूकंपीय हलचल होती है, जो पहाड़ों की चट्टानों को अंदर से कमजोर करती है। यही वजह है कि यहाँ भूस्खलन और बाढ़ का खतरा स्वाभाविक रूप से ज़्यादा है।
- ग्लोबल वार्मिंग का सीधा असर: 2020 में पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय की एक रिपोर्ट ने स्पष्ट किया कि भारत में छोटी अवधि की लेकिन उच्च तीव्रता वाली बारिश की घटनाओं (जिन्हें मिनी क्लाउडबर्स्ट कहा जा सकता है) में खतरनाक वृद्धि हुई है। पूर्व सचिव एम. राजीवन कहते हैं कि पहाड़ी राज्यों में भारी बारिश की घटनाओं का बढ़ना ग्लोबल वार्मिंग का एक स्पष्ट संकेत है। हिमालय का तापमान वैश्विक औसत से कहीं ज़्यादा तेज़ी से बढ़ रहा है (जिसे एलिवेटेड वॉर्मिंग कहते हैं), जिससे हवा में नमी रोकने की क्षमता बढ़ जाती है। यही नमी से लदी हवा जब पहाड़ों से टकराती है तो अचानक फट पड़ती है, जिसे हम बादल फटना (Cloudburst) कहते हैं। 2018 के बाद से ऐसी घटनाओं में तेज़ी से बढ़ोतरी हुई है।
- विकास के नाम पर विनाश: पहाड़ों पर तथाकथित विकास की अंधी दौड़ ने प्रकृति पर असहनीय बोझ डाल दिया है।
- अनियोजित निर्माण: बढ़ता पर्यटन, और चारधाम यात्रा के लिए हर साल आने वाले करोड़ों तीर्थयात्रियों के दबाव में पहाड़ों को बेतरतीब काटा जा रहा है।
- जलविद्युत परियोजनाएं: सड़कें, सुरंगें और बड़े-बड़े बांध बनाने के लिए पहाड़ों में बड़े पैमाने पर ड्रिलिंग और विस्फोट किए जाते हैं। इससे चट्टानें कमजोर होती हैं और भूस्खलन का खतरा कई गुना बढ़ जाता है।
- जंगलों की कटाई: सड़कों और होटलों के निर्माण के लिए अंधाधुंध जंगल काटे जा रहे हैं, जिससे मिट्टी का कटाव बढ़ता है और पहाड़ों की पकड़ कमजोर होती है।
अब नहीं चेते, तो बहुत देर हो जाएगी
उत्तराखंड में लगातार बढ़ रही प्राकृतिक आपदाएं सिर्फ एक पर्यावरणीय घटना नहीं हैं, बल्कि यह हमारे विकास के मॉडल, हमारी नीतियों, और प्रकृति के प्रति हमारे नजरिए पर एक गहरा प्रश्नचिन्ह लगाती हैं। यह सिर्फ जलवायु परिवर्तन नहीं, बल्कि अनियंत्रित मानवीय हस्तक्षेप का परिणाम है। यह पहाड़ों का अलार्म है। अगर हमने समय रहते अपनी गलतियों को नहीं सुधारा और पहाड़ों की संवेदनशीलता को ध्यान में रखकर नीतियां नहीं बनाईं, तो वह दिन दूर नहीं, जब ‘देवभूमि’ की पहचान सिर्फ त्रासदियों और आपदाओं तक ही सीमित रह जाएगी।