Supreme Court : 60 साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने दिलवाया मकान भारत की सर्वोच्च अदालत, सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court of India) ने एक असाधारण और दशकों पुराने कानूनी मामले में सुनवाई करते हुए 60 साल तक चली एक लंबी और थका देने वाली कानूनी लड़ाई (long legal battle) के बाद आखिरकार मकान मालिक परिवार के हक में एक ऐतिहासिक फैसला (historic judgment) सुनाया है। यह मामला देश में संपत्ति विवादों (property disputes in India) और किराएदारी कानूनों (tenancy laws) की जटिलताओं को उजागर करता है, जहां किराएदारों ने कथित तौर पर दशकों तक मकान मालिक (landlords) की ही संपत्ति पर अपना कब्जा (tenant’s possession on property) जमाए रखा था। दो पीढ़ियों तक चले इस धैर्य और संघर्ष के बाद, शीर्ष अदालत (Apex Court) ने अपने महत्वपूर्ण निर्णय में किराएदारों को संपत्ति खाली करने का स्पष्ट आदेश दिया है, जिससे अंततः मकान मालिक परिवार को उनकी अपनी पैतृक संपत्ति (ancestral property) वापस मिल गई है। यह फैसला भारतीय न्याय प्रणाली (Indian judicial system) में लंबित पड़े पुराने मामलों (long pending court cases) और न्याय में देरी (justice delayed) पर भी महत्वपूर्ण टिप्पणी करता है।
आखिर मामला क्या था? 60 साल के विवाद की शुरुआत (Origin of the 60-year dispute):
इस पेचीदा और लंबी कानूनी गाथा की शुरुआत 13 अक्टूबर 1952 को हुई थी। उस समय, मकान मालिक (जिन्हें हम सुविधा के लिए ‘A’ कहेंगे) ने अपनी संपत्ति कुछ किराएदारों (जिन्हें ‘B’ मान लेते हैं) को 10 साल की एक निश्चित अवधि के लिए किराए पर दी थी। किराएदारों का उद्देश्य इस मकान का उपयोग फिल्म डिस्ट्रीब्यूशन (film distribution business) के व्यापारिक संचालन के लिए करना था। 10 साल का किरायेदारी समझौता मार्च 1962 में समाप्त होना था।
किराये की तय अवधि 10 साल की थी, जो 1962 में समाप्त हो गई। इसके बाद, मकान मालिक ‘A’ ने 26 मार्च 1962 को अपने उस मकान को फर्नीचर सहित एक अन्य व्यक्ति (जिन्हें ‘C’ कहा गया है) को कानूनी रूप से बेच दिया। इस प्रकार, ‘C’ संपत्ति के नए मालिक बन गए।
नए मालिक (C) ने किराएदारों के साथ लीज रिन्यू (lease renewal) नहीं किया, लेकिन 10 साल की अवधि समाप्त होने और नया मालिक आने के बावजूद किराएदारों ने प्रॉपर्टी (disputed property) खाली नहीं की और उस पर अपना कब्जा बनाए रखा। यह स्थिति देखते हुए, नए मकान मालिक (C) ने वर्ष 1965 में किराएदारों के खिलाफ संबंधित कोर्ट में मकान खाली कराने (eviction case) का मुकदमा दायर किया।
सुप्रीम कोर्ट में पहली हार और संघर्ष जारी (First defeat in Supreme Court and continued struggle):
कई वर्षों तक चली अदालती कार्यवाही के बाद, यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा। दुर्भाग्यवश, वर्ष 1974 में, सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने इस मामले में किराएदारों के पक्ष में फैसला सुनाया, जिससे उन्हें फिलहाल मकान में रहने की अनुमति मिल गई। यह मकान मालिक (C) के लिए एक बड़ा झटका था।
हालांकि, मकान मालिक (C) ने इस हार से हिम्मत नहीं हारी और न्याय पाने का संघर्ष जारी रखा। उन्होंने 19 अक्टूबर 1975 को निचले स्तर की जिला अदालत (District Court) में एक नया मुकदमा दायर किया। यह मामला विभिन्न कानूनी प्रक्रियाओं से गुजरते हुए एक बार फिर लंबा चला और वर्ष 1999 में राज्य के उच्च न्यायालय (High court) तक पहुंचा। लेकिन, यहां भी निराशा ही हाथ लगी; 9 जनवरी 2013 को हाई कोर्ट ने भी मकान मालिक की याचिका (landlord’s petition) को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि उनकी बेदखली की मांग ‘वास्तविक आवश्यकता’ (bona fide need) पर आधारित नहीं थी या किसी अन्य कानूनी आधार पर सही नहीं थी। इस लंबी और थका देने वाली कानूनी लड़ाई के दौरान ही मूल मकान मालिक (C) का दुखद निधन हो गया।
मकान मालिक के बच्चों ने कानूनी लड़ाई जारी रखी: पीढ़ियों का संघर्ष (Landlord’s children continue legal battle: Generational struggle):
पिता के निधन के बाद, उनके बच्चे, जो अब उनके कानूनी वारिस (legal heirs) थे, ने इस दशकों पुराने कानूनी संघर्ष (decades-old legal battle) को आगे बढ़ाने का फैसला किया। मामले की सुनवाई के दौरान, किराएदारों के वकीलों ने यह तर्क दिया कि चूंकि मूल मुकदमा उनके पिता की “वास्तविक आवश्यकता” (genuine need) के आधार पर दायर किया गया था, इसलिए बच्चों को उसी आधार पर इस केस को आगे नहीं लड़ना चाहिए, क्योंकि ‘आवश्यकता’ व्यक्ति-विशिष्ट होती है और पिता की आवश्यकता उनकी अपनी आवश्यकता नहीं हो सकती।
लेकिन, सुप्रीम कोर्ट ने किराएदारों के इस तर्क को सिरे से खारिज कर दिया। अदालत ने उत्तर प्रदेश शहरी भवन (किराया और बेदखली का विनियमन) अधिनियम, 1972 (Uttar Pradesh Urban Buildings (Regulation of Letting, Rent and Eviction) Act, 1972) की धारा 21(7) (Section 21(7) of UP Rent Act) का हवाला देते हुए यह स्पष्ट किया कि यदि मकान मालिक की मृत्यु हो जाती है, तो उनके वैध कानूनी वारिस (legal successors) भी उस केस को आगे बढ़ा सकते हैं और अपनी स्वयं की वास्तविक आवश्यकता (own genuine need) के आधार पर किराएदार को निकालने की मांग कर सकते हैं। यह प्रावधान मकान मालिकों के अधिकार (landlord’s rights) को मजबूत करता है, खासकर उत्तराधिकार के मामलों में।
किराएदारों द्वारा प्रस्तुत तर्क और मकान मालिक के बेटे का जवाब (Arguments presented by tenants and landlord’s son’s response):
किराएदारों के वकीलों ने अदालत में एक और तर्क प्रस्तुत करते हुए दावा किया कि मकान मालिक के बच्चे काफी संपन्न (wealthy) हैं और उन्हें कथित तौर पर उस घर की ‘वास्तविक आवश्यकता’ नहीं है।
हालांकि, मकान मालिक के बेटे ने अपने हलफनामे (affidavit) में इस दावे का खंडन किया और अदालत को बताया कि इस पुश्तैनी घर के अलावा उनके पास आय (income) का कोई अन्य महत्वपूर्ण स्रोत या कोई अन्य व्यावसायिक संपत्ति (business assets) नहीं है। उन्होंने यह भी मार्मिक रूप से बताया कि वे स्वयं एक गंभीर हड्डी की बीमारी (bone disease) से पीड़ित होने के कारण नौकरी करने में असमर्थ हैं और इस घर की उन्हें वास्तविक और बेहद आवश्यकता है।
सुप्रीम कोर्ट का अंतिम और ऐतिहासिक फैसला (Supreme Court’s final and historic judgment):
तमाम दलीलों, सबूतों और कानूनी पहलुओं पर विचार-विमर्श करने के बाद, 24 अप्रैल 2025 को सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court decision date) ने इस दशकों पुराने विवाद पर अपना अंतिम और निर्णायक फैसला सुनाया। अदालत ने कहा, “यह अपील (मकान मालिक के बच्चों द्वारा दायर) स्वीकार की जाती है, और हाई कोर्ट का 2013 का आदेश रद्द किया जाता है।” अदालत ने किराएदारों को स्पष्ट और कड़े निर्देश दिए कि उन्हें 31 दिसंबर 2025 तक संबंधित मकान को हर हाल में खाली करना होगा। इसके अतिरिक्त, यदि किराएदारों पर कोई भी बकाया किराया (pending rent arrears) है, तो वह भी उन्हें अदालत के आदेश के चार सप्ताह के भीतर जमा करना होगा।
कानून विशेषज्ञों की राय: फैसले का महत्व (Legal Experts’ Opinion: Significance of the Judgment):
इस ऐतिहासिक फैसले पर कानूनी जगत से भी प्रतिक्रियाएं आई हैं। खैतान एंड कंपनी (Khaitan & Co.) के कानूनी विशेषज्ञ अवनीश शर्मा (Avnish Sharma, Legal Expert) के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट का यह हालिया निर्णय अत्यंत ऐतिहासिक महत्व रखता है। उन्होंने कहा कि इस फैसले से कोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया है कि कानूनी वारिस (legal heirs) अब केवल अपने दिवंगत पिता की ज़रूरत के आधार पर ही नहीं, बल्कि अपनी स्वयं की वास्तविक ज़रूरत (own genuine need) के आधार पर भी किराएदार को संपत्ति से हटाने की मांग कर सकते हैं। शर्मा ने इस निर्णय को मकान मालिकों के पक्ष में (in favor of landlords) एक बहुत ही महत्वपूर्ण और सकारात्मक कदम बताया है, जो उनके संपत्ति अधिकारों (property rights) को मजबूती प्रदान करता है। उनका मानना है कि यह फैसला भविष्य में किराएदारी कानूनों (tenancy laws) की व्याख्या और क्रियान्वयन में एक बड़ा बदलाव लाएगा।
शार्दुल अमरचंद मंगलदास एंड कंपनी (Shardul Amarchand Mangaldas & Co.) के आशु गुप्ता (Ashu Gupta, Legal Expert) ने इस फैसले पर टिप्पणी करते हुए कहा कि, “यह फैसला उन आश्रितों (dependents) और शारीरिक रूप से अक्षम या विकलांग व्यक्तियों (disabled individuals) को भी महत्वपूर्ण कानूनी ताकत (legal protection) देता है जो किसी मकान पर अपनी वास्तविक निर्भरता और आवश्यकता को कानूनी रूप से दिखा सकते हैं।” यह फैसला दर्शाता है कि न्यायपालिका कमजोर और अधिकारविहीन महसूस कर रहे संपत्ति मालिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है, भले ही न्याय मिलने में कितना ही समय लगे।
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