डेस्क। कोई कंपनी आज कितनी बड़ी और कितनी कामयाब है इसके पीछे उसकी कई सालों की मेहनत छिपी हुई होती है। किसी कंपनी को देश और दुनिया की सबसे बड़ी कंपनी बनाने के लिए उसके मैनेजमेंट को कई उतार-चढ़ाव से होकर गुजरना होता है। टाटा मोटर्स की कहानी भी कुछ इसी तरह की थी। आज भले ही टाटा मोटर्स देश की सबसे बड़ी कार कंपनियों में से एक हो पर एक दौर ऐसा भी था जब कंपनी के लिए बाजार में अपनी मौजूदगी बनाए, एक बड़ी चुनौती की तरह थी।
यह कहा जाता है कि बड़ी कंपनियों के लिए अकसर ऐसा समय में बड़े फैसला लेने पड़ते है। अगर समय पर लिया गया बड़ा फैसला सही साबित हुआ तो कंपनी फिर पीछे मुड़कर नहीं देखती और टाटा मोटर्स के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ।
टाटा मोटर्स के लिए 20वीं सदी का अंत काफी मुश्किलों से भरा हुआ था। उस दौर में भारतीय बाजार में मारुति सुजुकी अपनी मौजूदगी को बड़ी ही तेजी से बढ़ा रहा था। मारुति कंपनी समय-समय पर कार के नए मॉडल को लाकर भारतीय बाजार को अपने कब्जे में करते हुई दिख रही थी। उस दौर में टाटा मोटर्स के पास कार के जितने भी मॉडल थे वो इतने पुराने हो चले थे कि अब मारुति की दिन पर दिन मांग कम होने लगी थी।
टाटा को भी पता था कि उन्हें अगर बाजार में टिके रहना है तो जल्द से जल्द कुछ नया करना पड़ेगा और इसी समय रतन टाटा की कंपनी ने भारतीय बाजार में मारुति सुजुकी जैसी कंपनी का सामना करने के लिए इंडिका कार को भी लॉन्च किया था। 1998 में टाटा समूह ने जब इस कार को लॉन्च किया था तो उस दौरान शायद ही उन्हें इस बात का अंदाजा रहा होगा कि ये कार ना सिर्फ टाटा के लिए बल्कि पूरे कार बाजार में एक क्रांति लाने वाली है।
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इंडिका कार को लॉन्च करना टाटा के लिए एक ऐतिहासिक फैसला साबित हुआ और इस कार ने पूरे भारतीय बाजार का रूप बदलकर रख दिया था। इस कार की एकाएक इतनी मांग आई की थी कि इसने टाटा मोटर्स को एक संघर्षरत कंपनी की सूची से निकालकर कार बाजार के एक प्रमुख प्लेयर के तौर पर भी स्थापित किया गया था। साथ ही टाटा ने इसी कार के मॉडल की लॉन्चिंग के साथ ही भारत में हैचबैग क्रांति की भी शुरुआत करी थी।