इतिहास– यदि हम भारत के इतिहास को देखे तो भारत मे कई ऐसे नियम कानून थे। जो महिलाओ के लिए अभिशाप थे। महिलाओं को अतीत में अपना जीवन अपने मुताबिक जीने का अधिकार नही था। वह पुरुष के अधीन थी और उन्हीं के लिए उनका जीवन समर्पित था।
जिसका सबूत सती प्रथा के जिक्र से मिलता था। यह वास्तव में अत्यधिक दर्दमय था। कि एक महिला जो पुरुष के समान जन्म लेकर इस दुनिया मे आई उसे अपना जीवन सिर्फ तब तक जीना है जब तक उसका पति जीवित है।
कहते हैं सती प्रथा एक तरह से महिला के जीवित मौत की प्रक्रिया थी। जब एक महिला का पति मर जाता था। तो उस दौरान महिला खुद को अपने पति के साथ जला देती थी या किसी अन्य तरीके से अपने प्राण त्याग देती थी।
यह एक ऐसी कुरीति थी। जिसका प्रचलन धीरे धीरे पूरे भारत मे हुआ। महिलाओं को लेकर यह धारणा बना ली गई थी कि जो अपने पति की मौत के बाद जीवित रहती है वह शापित है।
जाने कब हुआ था सती प्रथा का जन्म-
सती प्रथा का जन्म 5 वीं शताब्दी में हुआ था। यह हिन्दू समुदाय के कुलीन समाज की प्रथा थी। 10 वीं शताब्दी तक आते आते यह लोकप्रिय हुई और 18 वीं शताब्दी में इसका विस्तार तेजी से होने लगा।
इस समय तक आते आते इंडोनेशिया, वियतनाम , भारत और एशिया के कई देशों में सती प्रथा का प्रचलन शुरु हो चुका था। लेकिन भारत मे बहुत ज्यादा इसका विस्तृत रूप नही देंखने को मिला। क्योंकि भारत धर्मशास्त्र के मुताबिक चलता था और धर्म शास्त्र इसकी अनुमति नही देते है।
भारतीय धर्म ग्रंथो में महिलाओं को देवी का रूप माना गया है। इसलिये भारत मे ज्यादातर लोग इस प्रथा के समर्थन में नही थे और इसे गलत मानते थे।
लेकिन गुप्त साम्राज्य से पूर्व इसके कुछ सबूत देंखने को मिले हैं। कि भारत मे भी सती प्रथा आ चुकी थी। भारत फतेह के लिए जब सिकन्दर ( 327 ईसापूर्व) भारत आया तो उसने देखा की जनजातियों में सती प्रथा प्रचलित थी। जनजातीय समुदाय की महिलाएं यह मानती थी उन्हें अपने पति के साथ खुद को समर्पित करना चाहिए। यह उनके लिए गर्व की बात होती थी।
सती प्रथा के परिपेक्ष्य में डायोडोरस ने लिखा है कि कैथोई लोगो ने रावी व व्यास नही पर विधवाओं को सती होते देखा है। वह अपने पति के साथ अपने आप को चिता पर समर्पित कर देती थी।
सती प्रथा का विरोध-
भारत मे सती प्रथा को कभी नही स्वीकार किया गया। राजा महाराजा हमेशा इस प्रथा का विरोध करते रहे। लेकिन सबसे ज्यादा ताज्जुब की बात यह थी की मुगल बादशाह अकबर सती प्रथा के खिलाफ थे। वह इसे रूढ़ीवादी बताते थे।
1582 में अकबर ने सती प्रथा रोकने के लिए प्रयास किया और जबरन इसपर प्रतिबंध लगा दिया। सती प्रथा के समर्थकों ने अकबर की अत्यधिक आलोचना की। लेकिन इस बात का कोई सबूत नही है कि वह सती प्रथा को पूर्ण रूप से रोक पाए।
राजा राममोहन राय-
राजा राममोहन राय ने सती प्रथा पर प्रतिबंध लगाने के लिए हर सम्भव प्रयास किया। उन्होंने विद्रोह छेड़ दिया और इस प्रथा के अंत का संकल्प लिया। भारतीय समाज के अनेकों समाज सुधारकों जैसे राजा राम मोहन राय आदि के अथक प्रयासों के द्वारा 4 दिसम्बर साल 1829 को समाज को सती प्रथा के कलंक से मुक्ति मिल गई थी.