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Join NowSyama Prasad Mukherjee: आज भारतीय राजनीति के एक ऐसे titan की 125वीं जयंती मना रहा है, जिनका योगदान केवल राजनीतिक ही नहीं, बल्कि देश के औद्योगिक और राष्ट्रीय स्वरूप को गढ़ने में भी अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है – डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी। जनसंघ (जो आज भारतीय जनता पार्टी का आधार बना) के संस्थापक, एक brilliant शिक्षाविद, और स्वतंत्र भारत के पहले उद्योग एवं आपूर्ति मंत्री के तौर पर डॉ. मुखर्जी ने एक ऐसे भारत की नींव रखी, जिसकी औद्योगिक आत्मनिर्भरता और अखंडता उनके विज़न का मुख्य स्तंभ थी।
एक दूरदर्शी नेता और कुशल प्रशासक का उदय:
6 जुलाई 1901 को कोलकाता के एक प्रतिष्ठित और सुसंस्कृत परिवार में जन्में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की प्रारंभिक यात्रा ही उनकी विलक्षण प्रतिभा का प्रमाण थी। उनके पिता, सर आशुतोष मुखर्जी, बंगाल के महान शिक्षाविद और कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति थे, जिन्होंने बंगाल के गौरवशाली शैक्षणिक इतिहास को संवारा था। इसी पारिवारिक माहौल में पले-बढ़े मुखर्जी ने महज़ 23 साल की उम्र में कानून की डिग्री हासिल की और इंग्लैंड से बैरिस्टर की उपाधि प्राप्त की। लेकिन, उनका सबसे असाधारण शैक्षणिक कारनामा 26 वर्ष की आयु में कलकत्ता विश्वविद्यालय का उपकुलपति बनना था, जो आज भी एक रिकॉर्ड है और उनके असाधारण शैक्षिक कद का गवाह है।
स्वतंत्र भारत के पहले ‘इंडस्ट्रियल आर्किटेक्ट’:
1941 में बंगाल के वित्त मंत्री के तौर पर अपनी प्रशासनिक पारी शुरू करने के बाद, 1947 में जब भारत ने आज़ादी की सांस ली, तब नवगठित अंतरिम सरकार में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने डॉ. मुखर्जी को देश का पहला उद्योग और आपूर्ति मंत्री बनाया। इस महत्वपूर्ण भूमिका में, डॉ. मुखर्जी ने सिर्फ़ मंत्री का पद नहीं संभाला, बल्कि स्वतंत्र भारत की पहली औद्योगिक नीति की रूपरेखा तैयार करके एक ‘राष्ट्र निर्माण’ की नींव रखी। उन्होंने भारतीय उद्योगों को विदेशी मॉडलों पर निर्भर रहने के बजाय आत्मनिर्भर और आधुनिक बनाने पर ज़ोर दिया।
बड़े उद्योगों की नींव और आत्मनिर्भरता का संकल्प:
डॉ. मुखर्जी का विज़न स्पष्ट था – एक ऐसा भारत जो अपनी औद्योगिक शक्ति से दुनिया में अग्रणी बने। इसी विज़न के साथ, उन्होंने ‘हिंदुस्तान स्टील लिमिटेड’ जैसी ऐतिहासिक औद्योगिक परियोजनाओं की आधारशिला रखी। आज भारत जिन बड़े इस्पात संयंत्रों पर गर्व करता है, उनकी जड़ें डॉ. मुखर्जी की पहल में कहीं न कहीं दिखाई देती हैं। 1948 में उन्होंने भारत की पहली औद्योगिक नीति पेश की, जो सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों के बीच एक स्वस्थ संतुलन साधने का प्रयास करती थी। यह नीति न केवल देश के औद्योगिक विकास के लिए एक रोडमैप थी, बल्कि आत्मनिर्भरता और आर्थिक संप्रभुता पर ज़ोर देने वाली भी थी।
सिंदरी फर्टिलाइजर और छोटे उद्योगों को बढ़ावा:
सिंदरी फर्टिलाइजर प्लांट की स्थापना जैसी महत्वपूर्ण परियोजनाओं में उनकी भूमिका अत्यंत उल्लेखनीय है। यह संयंत्र न केवल उर्वरक उत्पादन में आत्मनिर्भरता की ओर एक बड़ा कदम था, बल्कि इसने देश के कृषि क्षेत्र को भी मजबूती दी। डॉ. मुखर्जी ने सिर्फ भारी उद्योगों पर ही ध्यान केंद्रित नहीं किया, बल्कि छोटे और कुटीर उद्योगों के विकास को भी सर्वोच्च प्राथमिकता दी। उन्होंने हथकरघा उद्योग, हस्तशिल्प और ग्रामीण क्षेत्रों में रोज़गार सृजन को प्रोत्साहित किया, यह समझते हुए कि सच्चा विकास तभी संभव है जब समाज का हर वर्ग, विशेषकर अंतिम व्यक्ति सशक्त हो।
नेहरू से मतभेद और एक राष्ट्रनायक का बलिदान:
जवाहरलाल नेहरू के मंत्रिमंडल में काम करते हुए डॉ. मुखर्जी ने न केवल अपनी प्रशासनिक क्षमता का लोहा मनवाया, बल्कि राष्ट्रहित से जुड़े मुद्दों पर अपनी स्पष्टवादिता और दृढ़ता के लिए भी जाने गए। पंडित नेहरू ने स्वयं उनके प्रशासनिक कौशल और दूरदर्शिता की अक्सर सराहना की थी। 1948 में भारत की पहली औद्योगिक नीति पेश करते हुए नेहरू ने उन्हें ‘व्यावहारिक और दूरदर्शी’ कहा था। हालांकि, कश्मीर के विशेष दर्जे (अनुच्छेद 370) और राष्ट्रवाद से जुड़े अन्य मुद्दों पर दोनों नेताओं के बीच गंभीर वैचारिक मतभेद थे। मुखर्जी का मानना था कि अनुच्छेद 370 भारत की एकता और अखंडता के लिए खतरा है। इन्हीं मतभेदों के चलते, 1950 में डॉ. मुखर्जी ने नेहरू मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया।
अपनी असहमति और कश्मीर की ‘दोहरी नीति’ का विरोध करते हुए, उन्होंने 1951 में भारतीय जनसंघ की स्थापना की। 1953 में, वे कश्मीर में ‘एक देश, एक निशान, एक विधान’ के नारे के साथ बिना परमिट के कश्मीर गए, जहाँ उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। दुखद रूप से, 23 जून 1953 को कोलकाता में उनकी मृत्यु संदिग्ध परिस्थितियों में हुई, जिसे आज भी कई लोग एक अनसुलझे रहस्य और राजनीतिक साजिश से जोड़ते हैं।
आज भी प्रासंगिक विचार:
डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के विचार, विशेष रूप से भारत को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने, आयात पर निर्भरता कम करने और स्वदेशी उत्पादन को बढ़ावा देने की उनकी नीतियां, आज भी अत्यंत प्रासंगिक हैं। प्रथम उद्योग मंत्री के रूप में उनके द्वारा निर्धारित पथ, भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास की दिशा तय करने में मील का पत्थर साबित हुआ। उनकी 125वीं जयंती पर, हम उनके राष्ट्रवादी विज़न, औद्योगिक योगदान और राष्ट्र के प्रति उनके सर्वोच्च बलिदान को याद करते हैं।
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