Supreme Court on Muslim Inheritance: एक बेहद अहम और दूरगामी असर डालने वाले मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई करने का फैसला किया है। मामला इस सवाल से जुड़ा है कि क्या भारत का कोई मुसलमान, अपनी धार्मिक आस्था (इस्लाम) को छोड़े बिना, अपनी संपत्ति का बंटवारा इस्लामिक शरिया कानून की जगह, देश के धर्मनिरपेक्ष कानून – भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम (Indian Succession Act) – के तहत कर सकता है?
गुरुवार (नोट: मूल लेख में तारीख 17 अप्रैल, 2025 दी गई है, जो भविष्य की है, संभवतः यह टाइपो है, इसे हालिया घटना मानते हुए आगे बढ़ते हैं) को केरल के एक मुस्लिम शख्स की इसी मांग वाली याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने संज्ञान लिया है। याचिकाकर्ता चाहते हैं कि मुस्लिम समुदाय को अपनी पैतृक और खुद की कमाई संपत्ति के बंटवारे के मामले में शरिया की अनिवार्यता से छूट मिले और वे चाहें तो भारतीय उत्तराधिकार कानून का विकल्प चुन सकें, वो भी बिना अपना धर्म छोड़े।
क्या है याचिकाकर्ता की दलील?
मुख्य न्यायाधीश (CJI) संजीव खन्ना और जस्टिस संजय कुमार की बेंच ने केरल के त्रिशूर जिले के निवासी नौशाद के.के. की याचिका पर गौर किया। नौशाद ने अपनी याचिका में कहा है:
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शरिया की सीमा: शरिया कानून के तहत, कोई भी मुस्लिम व्यक्ति अपनी कुल संपत्ति का सिर्फ एक-तिहाई (1/3) हिस्सा ही अपनी मर्जी से वसीयत के जरिए किसी को दे सकता है।
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अनिवार्य बंटवारा: बाकी बची दो-तिहाई (2/3) संपत्ति को शरिया के तय इस्लामी उत्तराधिकार नियमों के अनुसार ही कानूनी वारिसों के बीच बांटना अनिवार्य है।
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वारिसों की सहमति जरूरी: अगर कोई व्यक्ति इस नियम से हटकर वसीयत करता भी है, तो वह तब तक अमान्य मानी जाती है, जब तक कि सभी कानूनी वारिस उस पर अपनी सहमति न दे दें।
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संवैधानिक चिंता: याचिकाकर्ता का कहना है कि वसीयत करने की आजादी पर शरिया कानून का यह प्रतिबंध गंभीर संवैधानिक सवाल खड़े करता है।
समानता के अधिकार का उल्लंघन?
याचिका में सबसे बड़ा तर्क यह दिया गया है कि धार्मिक उत्तराधिकार नियमों को इस तरह अनिवार्य रूप से सभी मुसलमानों पर लागू करना संविधान के अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समानता का अधिकार) का उल्लंघन है।
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याचिकाकर्ता का कहना है कि इससे मुसलमानों को अपनी संपत्ति के बारे में अपनी इच्छा से फैसला करने (वसीयत करने) की वो पूरी आजादी नहीं मिलती, जो देश के अन्य समुदायों के नागरिकों को भारतीय उत्तराधिकार कानून के तहत मिली हुई है।
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यहां तक कि जो मुसलमान धर्मनिरपेक्ष ‘विशेष विवाह अधिनियम’ (Special Marriage Act) के तहत शादी करते हैं, उन्हें भी संपत्ति बंटवारे में शरिया के नियमों से छूट नहीं मिलती।
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इसे एक मनमाना और भेदभावपूर्ण वर्गीकरण बताया गया है।
सुप्रीम कोर्ट का कदम और आगे क्या?
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सुप्रीम कोर्ट ने नौशाद की दलीलों को महत्वपूर्ण मानते हुए केंद्र सरकार और केरल सरकार को नोटिस जारी कर इस पर उनका जवाब मांगा है।
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कोर्ट ने इस याचिका को इसी तरह के मुद्दे पर पहले से लंबित अन्य याचिकाओं के साथ जोड़कर सुनवाई करने का आदेश दिया है।
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गौरतलब है कि पिछले साल अप्रैल में, कोर्ट ‘एक्स-मुस्लिम्स ऑफ केरल’ नामक संगठन की महासचिव साफिया पी.एम. की ऐसी ही याचिका पर सुनवाई के लिए सहमत हुआ था। साफिया ने कहा था कि वह एक नास्तिक हैं लेकिन मुस्लिम परिवार में जन्मी हैं और अपनी संपत्ति का निपटान भारतीय उत्तराधिकार कानून के तहत करना चाहती हैं।
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इसके अलावा, ‘कुरान सुन्नत सोसाइटी’ द्वारा 2016 में दायर की गई एक याचिका भी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है।
अब इन सभी याचिकाओं पर एक साथ सुनवाई होगी, जिससे मुस्लिम पर्सनल लॉ में संपत्ति बंटवारे के नियमों और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकारों पर एक बड़ी कानूनी बहस छिड़ गई है। इस मामले का फैसला देश में पर्सनल लॉ और नागरिकों के मौलिक अधिकारों के बीच संतुलन को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित कर सकता है।